Friday, March 11, 2011

''स्मृतियाँ''!


तुम्हारे संग
कभी घंटों चुपचाप बैठकर
तो कभी घंटों बातें करके
सहज हो जाती हूँ मै,
और जब तुम हँसते हो,
तब खिल उठते
मेरे दिल के बाग में
हजार-हजार गुलाब एक साथ
तुमसे दूर हो कर
ये स्मृतियाँ शेष रह गई हैं
मेरे पास
तुम्हारी धरोहर बनकर
तुम्हारा
वो साथ बैठना
बातें करना,
दुखी होना हँसना
रूठना, मनाना
हर पल, हर क्षण
मुझे आभास कराता है
आज भी
तुम्हारे पास होने का
इसीलिए
बड़े जतन से सँभाला है मैंने
तुम्हारी इस धरोहर को
क्योंकि
इससे मिलते ही
मन आनंदित हो जाता है
उमंग-उत्साह के रंग में
मैं सराबोर हो जाती हूँ
पल भर के लिए
जीवन मेला-सा बन जाता है
और मैं
एकबारगी
फिर से
सहज हो जाती हूँ
उसी तरह
जिस तरह
कभी तुमसे मिल कर होती हूँ..!

मौसम का जादूगर दृष्टि गया फेर।आओ फिर रंगों में डूबें एक बेर।।
तितली के पंख मुडें उपवन की ओर।गाँवों को जगा रही बासंती भोर।।
कोसों तक फैल गई महुआ की गंध।कोयलिया बाँच रही मधुऋतु के छंद।।
खेतों से बार बार कोई रहा टेर।आओ फिर रंगों में डूबें एक बेर।।
कान्हा की बंसी में राधा के बोल।किसने दी सांसों में मदिरा ये घोल।।
चरवाहे भूल गए जंगल की राह।एक मीन नाप रही सागर की थाह।
दर्पन में रूप आज कोई रहा हेर।आओ फिर रंगों में डूबें एक बेर।।
कलियों के अधरों को भ्रमर रहे चूम।पनघट चौपालों पर आज बड़ी धूम।।
कुदरत के हाथों में मेहंदी का रंग।अंग-अंग में सिहरन रोपता अनंग।।
घूंघट के उठने में थोड़ी ही देर।।आओ फिर रंगों में डूबें एक बेर।।

काश कभी वो दिन भी आए
भूल सभी को हम तुम साथी
दूर प्रकृति में खो जाएँ
विराट सृष्टि के हो जाएँ।
मंद-मंद बह रहा अनिल हो
झरने का मृदु कलकल रव हो
हिमशिखरों में सूरज चमके
प्रतिबिम्बित नीलाभ झील में
रंगबिरंगी मधुमय छवि हो
भौरों के गुन-गुन गुंजन को
स्वर अपना हम देकर गाएँ
भूल सभी को हम तुम साथी
दूर प्रकृति में खो जाएँ
बैठे हों सागर के तीरे
लहरों को गिनते रह जाएँ
रवि की आभा देखें एकटक
और सपनों में खो जाएँ
जब सूरज ढल जाए साथी
पंछी गीत मिलन के गाएँ
अंबर में चंदा मुस्काए
पपीहा करुण पुकार लगाए।
सर्पीली पगडंडी पर हम
थामे एक दूजे का हाथ।
निकल पड़ें नीरव रजनी में
कभी न छूटे अपना साथ।
चलते-चलते हम-तुम दोनों
दूर सितारों तक हो आएँ।
काश कभी वो दिन भी आए
भूल सभी को हम तुम साथी
दूर प्रकृति में खो जाएँ
विराट सृष्टि के हो जाएँ।

चाँद सा उज्वल किरण हो''!


पूर्णिमा के चाँद सा उज्वल किरण हो,चहकते मनुहार हो तुम,
प्रीति यदि पावन हवन है,दिव्य मंत्रोच्चार हो तुम!इस धरा से
व्योम तक तुमने उकेरी अल्पनाएँ,
छू रही हैं अंतरिक्षों को
तुम्हारी कल्पनाएँ।
चाँदनी जैसे सरोवर में करे अठखेलियाँ,
प्रेमियों के उर से जो निकलें वही
उदगार हो तुम!जोगियों का
जप हो तप हो, आरती तुम अर्चना,
साधकों का साध्य तुम ही
भक्त की हो भावना।
पतितपावन सुरसरि,कालिंदी तुम ही नर्मदा,
पुण्य चारों धाम का हो स्वयं ही
हरिद्वार हो तुम।हो न पावूंगी
उऋण मैं उम्र भर इस भार से,
पल्लवित, पुष्पित किया जो
बाग़ तुमने प्यार से। इस ह्रदय में तुम ही तुम हो,
तुम ही बंधू तुम ही प्रिय!जो बिखेरे अनगिनत रंग फागुनी
त्यौहार हो तुम।

अमृत रस''!


खिले कँवल से, लदे ताल पर,
मँडराता मधुकर मधु का लोभी.
गुँजित पुरवाई, बहती प्रतिक्षण
चपल लहर, हँस, सँग सँग,
हो ली !
एक बदली ने झुक कर पूछा,
"ओ, मधुकर, तू ,
गुनगुन क्या गाये?
"छपक छप -
मार कुलाँचे, मछलियाँ,
कँवल पत्र मेँ,
छिप छिप जायें !
"हँसा मधुप, रस का वो लोभी,
बोला,
"कर दो, छाया, बदली रानी !
मैँ भी छिप जाऊँ,
कँवल जाल में,
प्यासे पर कर दो ये, मेहरबानी !"
" रे धूर्त भ्रमर,
तू रस का लोभी --
फूल फूल मँडराता निस दिन,
माँग रहा क्योँ मुझसे , छाया ?
गरज रहे घन -
ना मैं तेरी सहेली!"
टप, टप, बूँदों ने
बाग ताल, उपवन पर,
तृण पर, बन पर,
धरती के कण क़ण पर,
अमृत रस बरसाया -
निज कोष लुटाया !
अब लो, बरखा आई,
हरितमा छाई !
आज कँवल मेँ कैद
मकरंद की, सुन लो
प्रणय-पाश मेँ बँधकर,
हो गई, सगाई !!

तुम में मेरा वृन्दावन है!


यह कैसी मीठी उलझन है?
धूप तुम्हारी याद दिलाती छावं तुम्हारी ही बातें है,
आँखे एक झलक को प्यासी भूले नहीं भुला पाते है,
इतना क्यूँ मोहित ये मन है ?
तुमसे मिलने को आतुर मेरा क्यूँ रोम रोम रहता है,
प्यार ही प्यार है इस ह्रदय में क्यूँ मेरा अंतर कहता है ?
जिद है या दीवानापन है ?
मिटटी की सोंधी खुशबु सी, या पूजा की झांझर जैसी,
रिमझिम रिमझिम बरखा हों तुम नदिया की बहती सुर जैसी...
तुम में मेरा वृन्दावन है!

अमर प्रेम!


डूबते सूरज की लाली, मनो मदिरा से भरी प्याली,
अतृप्त प्यास ले झुका है आकाश, धरती ने पहनलिया दुल्हन का लिबास!
साँझ के झुरमुट में छिप के मिलन का रंग बिखरा जाये,
शर्मा कर कुछ घबराकर, संध्या की चादर की आड़ लेकर,
लाज की लाली लिए छुप गयी धरती, रजनी की ओढ़ सितारों जड़ी चुनरिया,
विचार कर तड़प उठा आकाश, टंक दिया चाँद को देकर प्रेम प्रकाश!
धरती पर बिखर गयी स्नेह की चांदनी.....
बजने लागी फिर मिलन की रागनी,
दूर एक दुसरे पर मोहित है मन,अमर प्रेम का कैसा ये अटूट बंधन...?

चाँद तनहा था...!



ख़यालों में डूबे
वक्त की सियाही में
कलम को अपनी डुबोकर
आकाश को रोशन कर दिया था मैंने
और यह लहराते,
घूमते-फिरते, बहकते
बेफ़िक्र से आसमानी पन्ने
न जाने कब चुपचाप
आ के छुप बैठे
कलम के सीने में।
नज़्में उतरीं तो उतरती ही गईं मुझमें
आयते उभरीं
तो उभरती ही गईं तुम तक।
आँखें उट्ठीं तो देखा
आकाश में टिमटिमाते तारों के बीच एक चाँद तनहा था...!
जब ये झुक्की,
तो तुम थे और कुछ भी नहीं।

कभी जो बंद कीं आँखें''!




कभी जो बंद कीं आँखें सितारों की तरह देखा
तुझे इस दिल की दुनिया में बहारों की तरह देखा

अकेला जानकर मुझको हवाओं ने जहाँ छेड़ा
तुझे उस छेड़खानी में सहारों की तरह देखा

कसक तो थी मेरे मन की मगर बेचैन थे बादल
तुझे उस हाल में मैंने फुहारों की तरह देखा

खिले फूलों की पंखुड़ियाँ ज़रा भी थरथरायीं तो
तेरे होठों के कंपने के नज़ारों की तरह देखा

उदासी के समंदर ने डुबोना जब कभी चाहा''
तुझे उस हाल में मैंने किनारों की तरह देखा.....

संसृति में होते परिवर्तन
परिवर्तन ही शाश्वत सत है
यदि रुका कहीं जो परिवर्तन
तो महा प्रलय ही निश्चित है
प्रतिदिन हम अपनी ही आँखों
यह अभिनय देखा करते हैं
दिन रजनी के नव पर्दे पर
दिनकर शशि क्रीड़ा करते हैं
जिनके जीवन में केवल सुख
दुख की घड़ियाँ भी आती हैं
सुख दुख के दो उपकूलों से
जीवन सारि बहती जाती है
चिर मधुराधर की स्निग्ध हँसी
क्षण में विलीन हो जाती है
ग्रीष्म ऋतु की सूखी सरिता
पावस ऋतु में बल खाती है
अपने यौवन की छवि पर जो
लीला इतराती रहती है
दो दिन भी बीत न पाते जब
छलना छवि हर ले जाती है।

Thursday, March 10, 2011


कृष्ण का मुरली से
दीप का ज्योति से
अटूट नाता है
बीज माटी बिना
कब पनप पता है
पत्र निरर्थक संदेश बिना
कोरा काग़ज़ बन जाता है
कुछ इन जैसा
रिश्ता निभाना
तुम लौट आना
ज्यों आती है
भोर संग भावुकता
स्पर्श से झंकार
उसी तरह तुम आना
तुम लौट आना
लाती है हवा ख़ुशबू
चिड़िया चोंच में तिनका जैसे
चाँद थामे
रश्मि का हाथ
तलैया में लाता है जैसे
मेरे लिए स्वयं को लाना
तुम लौट आना
गोधूलि बेला में
लौटते है सब अपने ठौर
पंछी घोसले का रुख करते हैं
सूरज भी
नींद को जाता है
थका हरा इनसान
रैन बसेरे में आता है
मेरे प्यार की पनाहों में
तुम चले आना
तुम लौट आना...!

मैं पिघलता लावा नहीं
जो थम जाए तो
जम जाए
मैं ठिठुरता जल नहीं
जो जम जाए तो
थम जाए
मैं धधकती आग हूँ
तुम्हारी कसौटी पर
स्वयं को जलाती हूँ
नये आकार बनाती हूँ!
मैं उफनती नदी हूँ
तुम्हारे संकरे रास्तों पर
मीलों तक मचलती हूँ
तुम रोकते हो
मैं चलती हूँ
बूँदों में ढलती हूँ
टूटती हूँ, बिखरती हूँ
रास्तों को सींचती हूँ
मरू हूँ मैं बहार हूँ
मैं तुम्हारा प्यार हूँ

सुधियों के उपवन में तुमने
वासंती शत सुमन खिलाये.
विकल अकेले प्राण देखकर-
भ्रमर बने तुम, गीत सुनाये
चाह जगा कर आह हुए गुम
मूँदे नयन दरश करते हम-
आँख खुली तो तुम्हें न पाकर
मन बौराये, और भरमाये.
मुखर रहूँ या मौन रहूँ पर
मन ही मन में तुम्हें टेरती
मीत तुम्हारी राह हेरती
मन्दिर मस्जिद गिरिजाघर में
तुम्हें खोजकर हार गयी हूँ
बाहर खोजा, भीतर पाया-
खुद को तुम पर वार गयी हूँ
नेह नर्मदा के निनाद सा
अनहद नाद सुनाते हो तुम-
ओ रस-रसिया!, ओ मन बसिया,
पार न पाकर पार गयी हूँ !!!

मैं बैठी हूँ पुष्पित वाटिका के मध्य
अनुभव कर रही हूँ दूब का शीतल स्पर्श,
निरख रही हूँ नाचतीं तितलियाँ'
सूंघ रही हूँ वसंत के पुष्पों की महक।
सुन रही हूँ कहीं पक्षियों का गुंजन
...तो कहीं शंकर का प्रचंड तांडव नर्तन।
क्यों कि आज मुझमें है ऊर्जा का स्पंदन।
मैं सुनती हूँ जगत का कोलाहल'
क्यों कि वायु-कणों में होता है स्पंदन।
मैं देखती हूँ प्रकृति' के चमत्कार,
क्यों कि ईथर की तरंगो में होता कम्पन।
मेरा सुख-दुःख, हर्ष-विषाद सब हैं
मस्तिष्क के अणुओं की वैद्वितीय पुलकन।
मेरा जीवन है मात्र उर्जा का स्पंदन।
शांत हो जायेंगे जब इन्द्रियों के स्पंदन
बन जायेंगे क्षिति, जल, पावक, समीर, गगन
बिखर कर अंग-अंग बन जायेंगे कण-कण
तब भी रहेगा उनके परमाणुओं में स्पंदन।
फिर जब होगा तत्वों का वांछित मिलन
जीवन-नाटिका का विश्व में पुनः होगा मंचन
क्यों कि जीवन है मात्र ऊर्जा का स्पंदन।

इस बीज को बोना चाहती हूँ
थोड़ी -सी धरती चाहिए
इस बीज को सींचना चाहती हूँ
थोड़ा बादल चाहिए।
इसे हवा मिले
...पुरवाई चाहिए
इसे रोशनी मिले
थोड़ा सा आकाश चाहिए।
बड़ा होगा फलेगा, फूलेगा
धरती आनंद से छा जाएगी
अमृत लोक से लाई हूँ ये बीज।
बड़ा संक्रामक रोग है इसे
प्यार का रोग, फैलाता है यह
इससे धरती पर प्यार फैलेगा।

बसंत के आते ही
मैं भर लाती हूँ
अपनी सहज अनुभूति के आँचल में
महक फूलों की
बसंत के आते ही
...मैं मंडराती हूँ
उन पर तितली-सी
गुनगुन करती
मैं काव्य रूप के पुष्प भी
बिन लाती हूँ
राग, रंग, छंदों के
ललछौने बासंती मौसम की
देहरी के द्वार खोल
मैं जब तब
सृजन के क्षण भी
चुन लाती हूँ
सच पूछो तो
मेरे मन के गुलशन
अपने आप में
राग, रंग, छंदों के
फूलों से
महके वातास हैं
बासंती मौसम में
सुगंधित मधुमास हैं....!

शब्द छूटे भाव कि
अनुरागिनी में हो गयी .
देह छूती श्वास कि अनुगामिनी
में हो गयी .
क्या भला बाहर में खोजूँ ?
...क्यूँ भला और किस से रीझूं?
आत्मरस का स्वाद पा,
आत्म्सलिल में हो निमग्न
आत्मपद कि चाह में ,
उन्मादिनी में हो गयी .
मैं तो अंतर्लापिका हूँ
कोई बूझेगा मुझे क्या?
जो हुए हैं 'स्व'स्थ स्वतः
उन महिम सुधि आत्मग्यों के
प्रेम के रसपान कि अधिकारिणी
मैं हो गयी,
शब्द छूटे भाव की
अनुरागिनी मैं हो गयी
देह छूती श्वास की अनुगामिनी
मैं हो गयी!


दो लोगों के बीच
ज़रूरी नहीं
शब्द और ज़ुबान हो
रिक्त आवाज़ को
बिन कहे बात को
दिल भी अक्सर
सुन लेता है।


तुमने हवा में बिखेरे रंग मै सकुचाई,
तुमने रंगों की ओढा दी चादर मै बच न पायी,
रंगों का आवरण था घना,
मेरी कल्प्नावों में उतर ए मीत!
इन्द्रधनुषी रंग.....!

जोगन, नैन मिले अनमोल,
ओस कनों से कोमल सपने
पलकों-पलकों तौल!
जोगन, नैन मिले अनमोल!
इन सपनों की बात निराली,
दिन-दिन होली, रात दिवाली।
इनसे माँग नदी-झरनों के
मीठे-मीठे बोल!
जोगन, नैन मिले अनमोल!
सपनों का क्या ठौर-ठिकाना,
जाने कब आना, कब जाना।
नयन झरोखों से तू अपनी
दुनिया में रस घोल,
जोगन, नैन मिले अनमोल।

तुमने महसूस किया है ऐसा?


ए दोस्त !ऐसा भी महसूस किया है मैंने कभी
कि कुछ रिश्ते बेनाम ही ठीक होते हैं
तुम चाहो भी तो उन्हें नाम नहीं दे पाते हो
जो इतने मधुर, पाक और सच्चे होते हैं।
समाज की गन्दगी से अछूते
ये रिश्ते देते जीवन को नए आयाम
मरहम बन जाते ज़ख्म में
हर हालत में देते आराम।
ऐसा कुछ तुम्हारे साथ हो जाए
तो रिश्ते को सहेज के, सँभाल के रखना
अपने मन की बात मानना
दुनिया से न हरगिज़ डरना।
जिस तरफ़ ले जाए जीवन का बहाव
बह लेना
बोलता रहे कोई कुछ भी तुमको
सह लेना
जज़्बाती लगाव, इंसानियत का रिश्ता
प्रेम, स्नेह, प्यार, मोहब्बत
तुम जो चाहे इसे कह लेना।
लोगों की तो आदत हैं
बोलेंगे ही बोलेंगे
तुम्हारे सारे संबंधों को
तोलेंगे ही तोलेंगे।
चलों मैं तुमसे ही पूछती हूँ
तुम ही मुझकों बतला दो ?
मान लो मेंरी बातों को
या फिर उनको झुठला दो -
रिश्तों को नाम मिले हैं
तो क्या वे निभे हैं?
संबधों में जुड़कर क्या लोग
सचमुच संग चले है?
मैंने महसूस किया है
कुछ रिश्तों को
मैंने भरपूर जिया है
कुछ रिश्तों को -
जिनकी मुझे शक्ल और सूरत
नहीं दिखती
जिन्हें मैं
किसी जिस्म में कैद नहीं पाती
सीधा-सीधा
आत्मा से होता है जिनका नाता।
कितने अच्छे लगते हैं न ऐसे रिश्ते,
ऐसे रिश्ते
जो दिल के रिश्ते होते हैं।
क्या तुमने महसूस किया है ऐसा?

धूप की शरारत के बावजूद
जैसे धरती बचाकर रखती है
थोड़ी-सी नमी अपने भीतर
पहाड़ बचाकर रखते हैं
कोई हरा कोना अपने वक्ष में
तालाब बचाकर रखता है
कोई एक बूँद अपनी हथेली में
पेड़ बचाकर रखते हैं
टहनियों और पत्तों के लिए जीवन रस
फूल बचाकर रखते हैं
खुशबू अपने आवरण में
चिड़िया बचाकर रखती है
मौसम से जूझने की जिजीविषा

वैसे ही मैंने बचाकर रखा है
अपने भीतर
तुम्हारे होने का अहसास।

रोशनी हो हर घड़ी, अन्तर्दिशाएँ जगमगाएँ।
चेतना-आकाश में कोई, नया सूरज उगाएँ॥
हास अधरों पर, नयन में, सौम्यता के तीर्थ आएँ,
कार्य के प्रारूप प्रेरित, अंग प्रतिपल दीप्त पाएँ,
मौन में माधुर्य की सोई हुई स्फुरणा जागाएँ॥
चेतना-आकाश में कोई, नया सूरज उगाएँ॥
ज़िन्दगी में कर्ज़ कितने, आश्वास के, विश्वास के,
फ़र्ज़ कितने स्नेह के, आशीष के, अहसास के,
सहज सब स्वीकार हैं, हर साँस की कीमत चुकाएँ॥
चेतना-आकाश में कोई नया सूरज उगाएँ॥
शब्द के सुंदर झरोखे, सज रहे हों भाव-द्वारे,
मौन में भी महकते हों, चेतना के चित्र सारे,
मोक्षपथ के द्वार, सँवर की रचें नूतन ऋचाएँ॥
चेतना-आकाश में कोई नया सूरज उगाएँ॥

''मोहक अनुभूति''....!
रूप है भी ओर नहीं भी, मात्र दृष्टि का आभास'
किन्तु नहीं है आंखे....
मुंह नहीं चेहरा भी नहीं, पर मुस्कराहट,
अपनी ओर बार बार बुलाती मुस्कराहट,
एक होने कों अकुलाती मुस्कुराहट, शब्दों के पार...
उन्मुक्त हंसी, तरल कर देती रोम रोम, भिगों देती है man
चारों ओर तरंग ही तरंग मोहक अनुभूति के स्पंदन''
धीरे धीरे हो जाते समहित अब केवल वह एक,
नहीं है कुछ भी शेष न खोना न पाना केवल बूंद का सागर हो जाना है...!

आनंदमयी गंगोत्री !
कहीं अलकनंदा, कहीं मन्दाकिनी, कहीं भागीरथी...
नाम भिन्न भिन्न आस्था एक, श्रद्धा एक,
इस तट से उस तट तक जल ही जल...
प्रवाह ही प्रवाह दिन-रात लगातार,
चलते चलते समां जाती गंगा सागर में...
समर्पण की अंतिम परिणिति
गति कों मिल गया विश्राम!
हर लहर में अब केवल आनंद ही आनंद बंधु...
ठीक उसी तरह ढूंड लिया मैंने भी,
सत्य का अखंड स्रोत अपने भीतर,
अटलता का गहन तोष सार्थक हुआ जन्म जन्मंतेर का प्रयास
सूर्य उदय हुआ भीतर अजस्र उत्ताप...
पिघलने लगा शिल्याव्रित हिम का अहम्
दर्प की पथरीली परतों कों फोड़,
बहने लगा प्रेम का झरना गोमुख से....ह्रदय बन गया तीर्थस्थल''
आनंदमयी गंगोत्री ! हुई अवतरित..!