Friday, March 11, 2011

चाँद तनहा था...!



ख़यालों में डूबे
वक्त की सियाही में
कलम को अपनी डुबोकर
आकाश को रोशन कर दिया था मैंने
और यह लहराते,
घूमते-फिरते, बहकते
बेफ़िक्र से आसमानी पन्ने
न जाने कब चुपचाप
आ के छुप बैठे
कलम के सीने में।
नज़्में उतरीं तो उतरती ही गईं मुझमें
आयते उभरीं
तो उभरती ही गईं तुम तक।
आँखें उट्ठीं तो देखा
आकाश में टिमटिमाते तारों के बीच एक चाँद तनहा था...!
जब ये झुक्की,
तो तुम थे और कुछ भी नहीं।

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