Thursday, March 10, 2011


मैं बैठी हूँ पुष्पित वाटिका के मध्य
अनुभव कर रही हूँ दूब का शीतल स्पर्श,
निरख रही हूँ नाचतीं तितलियाँ'
सूंघ रही हूँ वसंत के पुष्पों की महक।
सुन रही हूँ कहीं पक्षियों का गुंजन
...तो कहीं शंकर का प्रचंड तांडव नर्तन।
क्यों कि आज मुझमें है ऊर्जा का स्पंदन।
मैं सुनती हूँ जगत का कोलाहल'
क्यों कि वायु-कणों में होता है स्पंदन।
मैं देखती हूँ प्रकृति' के चमत्कार,
क्यों कि ईथर की तरंगो में होता कम्पन।
मेरा सुख-दुःख, हर्ष-विषाद सब हैं
मस्तिष्क के अणुओं की वैद्वितीय पुलकन।
मेरा जीवन है मात्र उर्जा का स्पंदन।
शांत हो जायेंगे जब इन्द्रियों के स्पंदन
बन जायेंगे क्षिति, जल, पावक, समीर, गगन
बिखर कर अंग-अंग बन जायेंगे कण-कण
तब भी रहेगा उनके परमाणुओं में स्पंदन।
फिर जब होगा तत्वों का वांछित मिलन
जीवन-नाटिका का विश्व में पुनः होगा मंचन
क्यों कि जीवन है मात्र ऊर्जा का स्पंदन।

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