Thursday, March 10, 2011


सुधियों के उपवन में तुमने
वासंती शत सुमन खिलाये.
विकल अकेले प्राण देखकर-
भ्रमर बने तुम, गीत सुनाये
चाह जगा कर आह हुए गुम
मूँदे नयन दरश करते हम-
आँख खुली तो तुम्हें न पाकर
मन बौराये, और भरमाये.
मुखर रहूँ या मौन रहूँ पर
मन ही मन में तुम्हें टेरती
मीत तुम्हारी राह हेरती
मन्दिर मस्जिद गिरिजाघर में
तुम्हें खोजकर हार गयी हूँ
बाहर खोजा, भीतर पाया-
खुद को तुम पर वार गयी हूँ
नेह नर्मदा के निनाद सा
अनहद नाद सुनाते हो तुम-
ओ रस-रसिया!, ओ मन बसिया,
पार न पाकर पार गयी हूँ !!!

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